मुंबई, ये शहर नहीं पहेली है।
देखो, तो भीड़ बहुत है,
सोचो, तो यहाँ ज़िन्दगी अकेली है।
मुंबई, ये शहर नहीं पहेली है।
भीगे से रास्ते, उलझते से जाते हैं,
लोग बेहिसाब फिर भी बेफिक्र चलते जाते हैं।
कहते हैं, ज़िन्दगी बहुत तेज़ गुज़रती है यहाँ;
हमेशा एक अजनबी बन कर रहती है।
पर एक लम्हा जो थम जाए
तो ज़िन्दगी ही, सबसे करीबी सहेली है।
मुंबई, ये शहर नहीं पहेली है।
लेहेरों में उठ कर सागर,
रोज़ मुंबई से मिलने आता है।
किनारों पर लगा रेला लोगों का,
सुकूं इसी से पता है।
सुना है.. इस शहर में लोग मंजिलें पा लेते हैं।
देखा है.. की मंजिलों की तलाश में आदमी खो जाता है।
कुछ तो राजा हो जाते हैं यहाँ;
कुछ ने हर साँस अपनी एक भोझ-
एक सजा सी झेली है।
मुंबई, ये शहर नहीं पहेली है।
सपनों का शहर ये,
रातों में जागा करता है।
जगमगाते रास्तों पर मस्ती में;
बेरोक भागा करता है।
धुंध, हाला की दुनिया में,
खो सा जाया करता है।
रात सोचो तो दुनिया मुठ्ठी में,
सुबह जागो तो खाली हथेली है।
मुंबई, ये शहर नहीं पहेली है।
इस शहर से इश्क मुझको भी क्यूँ होने लगा है?
क्या तलब है ये, भीड़ में खो जाने की?
या कोई ख्वाहिश, अपना मुकाम पाने की?
डर है.. और भरोसा भी।
क्या करें की आदत अपनी है,
ग़लत जगह दिल लगाने की।
तो फिलहाल तो ये मुंबई आमची होने को है।
ये मुंबई... जो शहर नहीं पहेली है।
ये मुंबई...
जहाँ देखो तो भीड़ बहुत है;
और सोचो, तो ज़िन्दगी अकेली है।।